एर्दोगन का तुर्की NATO के लिए कैसे बना सिरदर्द?

नाटो ने मैड्रिड शिखर सम्मेलन के दौरान फिनलैंड और स्वीडन को गठबंधन में शामिल होने के लिए औपचारिक रूप से आमंत्रित कर दिया है। यह फैसला तुर्की के आपत्ति को हल करने के बाद लिया गया है। तुर्की ने आरोप लगाया था कि ये दोनों देश कुर्दिस्तान वर्कर्स पार्टी को समर्थन देते हैं, जो उनके देश में आतंक और अलगाववाद को बढ़ावा दे रहा है। हालांकि, नाटो महासचिव जेन्स स्टोलटेनबर्ग की मध्यस्थता के बाद फिनलैंड और स्वीडन ने अपने कानूनों में संशोधन कर कुर्दिस्तान वर्कर्स पार्टी को समर्थन बंद करने का भरोसा दिया है। जिसके बाद खुद फिनलैंड के राष्ट्रपति सौली निनिस्टो ने ऐलान किया कि तुर्की ने उनके देश और स्वीडन की सदस्यता का समर्थन किया है। इस कदम को रूस के लिए एक बड़ा झटका बताया जा रहा है।

फिनलैंड-स्वीडन के मामले में खुद की जीत बता रहे एर्दोगन
फिनलैंड और स्वीडन के साथ ही समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर को तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन ने अपनी जीत बताया है। उन्होंने खुद की पीठ थपथपाते हुए कहा कि नाटो एक सदस्य के रूप में तुर्की को खोने का जोखिम नहीं उठा सकता है। यही कारण है कि इन दोनों नॉर्डिक देशों को तुर्की के आगे झुकना पड़ा। लेकिन कई विशेषज्ञों का मानना है कि तुर्की नाटो के लिए सिरदर्द बन गया है। हाल की भू-राजनीतिक घटनाओं ने दिखाया है कि तुर्की के नखरों को सहन करना नाटो की मजबूरी बन गई है। विशेषज्ञों का कहना है कि एर्दोगन यह अच्छी तरह से जानते हैं और उन्होंने नाटो में अपने देश के स्थान का इस्तेमाल अपने राष्ट्रीय हितों को साधने के लिए किया है।

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