छत्तीसगढ़ की जनजातीय संस्कृति पर संगोष्ठी का आयोजन
रायपुर :
छत्तीसगढ़ की जनजातीय संस्कृति पर आधारित संगोष्ठी के दूसरे दिन जनजातीय समुदाय पर्यावरण संरक्षण वैश्विक परिप्रेक्ष्य में तथा वन अधिकार अधिनियम क्रियान्वयन एवं चुनौतियों विषय पर परिचर्चा का आयोजन किया गया।
प्रथम सत्र में जनजातीय समुदाय पर्यावरण संरक्षण वैश्विक परिप्रेक्ष्य में अपर प्रधान मुख्य वन संरक्षक श्री बी. पी.सिंह ने कहा कि छत्तीसगढ़ में 42 प्रकार की जनजातियां मुख्यतः निवास करती है। यहाँ 44 प्रतिशत वन है। ग्रामीण क्षेत्रो में 72 लाख की जनजातियां निवासरत है जबकि शहरी क्षेत्रों में लगभग 5 लाख जनजातियां निवास करती है। इससे यह सिद्ध होता है कि जनजातियों का वनों से घनिष्ठ संबंध है। इनकी आजीविका मुख्यतः वनोपज पर निर्भर है। जनजातीय समुदाय का, वनों के संरक्षण और संवर्धन में महती भूमिका है। वनोपज और जड़ी बूटियों का दोहन इस प्रकार करते हैं कि उसके अस्तित्व पर संकट न आ जाये। बैगा आदिवासी कभी साजा का पेड़ नही काटते, इसमें वह बूढ़ा देव का वास मानते है प्रकृति और जीवन के बीच आपसी समन्वय जनजाति समाज में गहरी जड़ो तक समाया हुआ है। पर्यावरण संरक्षण और परिवर्तन के अंतर को समझना जरूरी है। वनों के उत्पादकता पर ध्यान देना जरूरी है। वनों का प्रबंधन वर्ष 1992 से किया जा रहा है। वन प्रबंधन समितियों में जनजातियों की भागीदारी सुनिश्चित की गई है। इको टूरिज्म और नेचुरोपैथी जनजातियों के जीवन मे आमूल चूल परिवर्तन लाने में सक्षम है।
इसी तरह सेवानिवृत्त सहायक वन संरक्षक श्री जितेंद्र सिंह ठाकुर ने कहा कि सामान्य आदमी जंगल को आमोद-प्रमोद की जगह और व्यवसायी व्यवसाय का साधन समझते है। जनजातियों के लिए वन एक संस्कृति है, एक धरोहर है। दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला है और सबसे महत्वपूर्ण जीविकोपार्जन का साधन है। पर्यावरण में जो विकार पैदा हुआ है, उसमें सुधार बहुत आवश्यक है। औद्योगिक निष्पादन में प्रभावी रोक लगाकर पर्यावरण को बेहतर किया जा सकता है।