पाकिस्तान तो हारा ही, इस्लामी झंडा उठाए जिन्ना भी हार गए!

नई दिल्ली
कुछ तस्वीरें देश के सामूहिक अवचेतन में हमेशा-हमेशा के लिए रच-बस जाती हैं। 16 दिसंबर 1971 को ढाका में लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा की पाकिस्तानी जनरल एएके नियाजी को आत्मसमर्पण के दस्तावेजों पर दस्तखत करते हुए देखने की तस्वीर भी उन्हीं में से एक है। 50 साल पहले आज ही के दिन जो कुछ हुआ वो किसी देश की सेना के शर्मनाक सरेंडर, 93000 से ज्यादा सैनिकों के साथ किसी जनरल के आत्मसमर्पण से भी बहुत ज्यादा था। यह मजहब के नाम पर बने दुनिया के इकलौते देश पाकिस्तान का दो हिस्सों में बंटना था। यह मोहम्मद अली जिन्ना के टू-नेशन थिअरी या द्वि-राष्ट्र सिद्धांत की भी शिकस्त थी। मजहब एक होने से मुल्क भी एक होगा, जिन्ना के उस सपने की हार थी।

तब के पूर्वी पाकिस्तान में मार्च 1971 में पाकिस्तान ने बंगालियों पर भीषण जुल्मो-सितम का दौर शुरू किया तो महज 7 महीने बाद उसे शर्मनाक सरेंडर करना पड़ा। इतिहास तो बदला ही, भूगोल भी बदल गया। बांग्लादेश के रूप में एक नए देश का उदय हुआ।1971 की जंग में भारत की शानदार जीत के 50 साल होने के मौके पर राज्यसभा सांसद स्वपन दासगुप्ता ने हमारे सहयोगी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया के लिए लिखे लेख में यह समझाया है कि क्यों 1971 में जो कुछ हुआ वह दिखाता है कि मजहब पर आधारित टू-नेशन थिअरी किस तरह खोखली थी, उसे नाकाम होना ही था।

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